Tuesday, December 26, 2006

रणभूमि !

बड़े दिनों बाद, मुझे फिर कुछ हो गया
कल मैं फिर कुद पड़ा रणभूमि में
इस जर्जर शरीर को लेकर
बिन साथी, बिन सारथी,
साथ था तो बस एक व्यथित ह्र्दय ।

करना था तारण
किसी और का नहीं
पीड़ित था मैं स्वयं
सो पुन: किया अस्त्र धारण ।

युद्ध हुआ सदा की तरह घमासान
कई बार लगा कि चले गये प्राण
चला सतत संघर्ष,चले अगणित बाण
थे दाव पर कितने जीवन,मान-सम्मान।

ढल रहा था अब सूर्य,
पश्चिम भी हो रहा था रक्ताक्त
नहीं था मेरे पास इच्छामृत्यु का वरदान
फिर भी अटूट था मेरा अभिमान ।

अन्तत: हुआ अन्त इस युद्ध का
परिणामहीन एक और भीषण द्वंद का
आज मैं फिर खड़ा हूँ यहाँ, प्रतीक्षा है
एक नये ललकार,एक नये सुअवसर का ।


- तापस