काँच की इस दीवार के उस पार
मैं अक्सर देखा करता हूँ...
कुछ टुकड़े बादल के...
और कुछ झूमते,
लहराते पत्ते नज़र आते हैं
ठीक तुम्हारी हँसी की तरह...
मेरी उपस्थिति से अनभिज्ञ..
इन्हें क्या पता कि मेरी आँखें
इनकी गति को निहार
तुम्हारी अनुभूति कर लेती हैं...
और मेरे जीवित होने का
एक सजीव एहसास मुझे दे जाती हैं...
Friday, April 13, 2007
Thursday, March 8, 2007
क्यों?
कुछ अधूरे ख्वाब, कुछ अनकही बातें
समय की परिधि से परे कुछ अंतहीन क्षण
क्यों मुझे आज पुकार रहे हैं?
एक निःशब्द निमंत्रण, एक अतुल्य आकर्षण
ह्र्दय में बसी किसी की मधुर छवि
क्यों मुझे आज दुर्बल कर रही है?
कुछ नूतन स्मृति चिह्न, कुछ धूमिल दृश्य
किसी की उपस्थिति का अकारण आभास
क्यों मुझे आज व्याकुल कर रहा है?
मन आज नियंत्रण से बाहर क्यों?
जब मंज़िलें और भी हैं, फिर
मेरे सम्मुख वही एकमात्र लक्ष्य क्यों?
समय की परिधि से परे कुछ अंतहीन क्षण
क्यों मुझे आज पुकार रहे हैं?
एक निःशब्द निमंत्रण, एक अतुल्य आकर्षण
ह्र्दय में बसी किसी की मधुर छवि
क्यों मुझे आज दुर्बल कर रही है?
कुछ नूतन स्मृति चिह्न, कुछ धूमिल दृश्य
किसी की उपस्थिति का अकारण आभास
क्यों मुझे आज व्याकुल कर रहा है?
मन आज नियंत्रण से बाहर क्यों?
जब मंज़िलें और भी हैं, फिर
मेरे सम्मुख वही एकमात्र लक्ष्य क्यों?
Friday, February 23, 2007
चलते चलो
न होगा अब कभी म्लान मुख
मिट जायेंगे तेरे सारे दुख
पथ को ही बना लो पाथेय तुम
चलते चलो,
सफलता अवश्य लेगी तुम्हारे कदम चूम
राहें सूनी हैं तो क्या
मंज़िल दूर है तो क्या
खुद का साथ तू कभी न छोड़ना
मुश्किलें चाहें लाखों आयें,
कभी उनसे मुँह न मोड़ना
माना ज़िंदगी है बड़ी ग़मगीन अभी
कोई भी दिया रौशन नहीं
पर उम्मीदों को सदा ज़िंदा रखना
अपने अंदर जो आग है
उसे कभी बुझने न देना
मिट जायेंगे तेरे सारे दुख
पथ को ही बना लो पाथेय तुम
चलते चलो,
सफलता अवश्य लेगी तुम्हारे कदम चूम
राहें सूनी हैं तो क्या
मंज़िल दूर है तो क्या
खुद का साथ तू कभी न छोड़ना
मुश्किलें चाहें लाखों आयें,
कभी उनसे मुँह न मोड़ना
माना ज़िंदगी है बड़ी ग़मगीन अभी
कोई भी दिया रौशन नहीं
पर उम्मीदों को सदा ज़िंदा रखना
अपने अंदर जो आग है
उसे कभी बुझने न देना
Tuesday, January 2, 2007
Subscribe to:
Posts (Atom)