काँच की इस दीवार के उस पार
मैं अक्सर देखा करता हूँ...
कुछ टुकड़े बादल के...
और कुछ झूमते,
लहराते पत्ते नज़र आते हैं
ठीक तुम्हारी हँसी की तरह...
मेरी उपस्थिति से अनभिज्ञ..
इन्हें क्या पता कि मेरी आँखें
इनकी गति को निहार
तुम्हारी अनुभूति कर लेती हैं...
और मेरे जीवित होने का
एक सजीव एहसास मुझे दे जाती हैं...
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2 comments:
अच्छा है लिखते रहें !
शुक्रिया मनीष जी.
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