Wednesday, September 21, 2011

नई चाल

ऋतुएँ बदलीं,
जग बदला

पुरानी बीजों से हुए
अंकुरित नए फसल

आज तू भी बदल,
नई चाल चल !

तोड़ दो लय

मेरे चंचल मन, उत्कंठ ह्रदय 
बोले मुझसे, चल तोड़ दें लय
इस श्रृंखलित जीवन का .

कष्टों से समझौता क्यों ?
क्यों करते हो आनाकानी,
आखिर किस बात का है तुम्हें भय?

चलो तोड़ दें आज लय! 

Friday, September 16, 2011

मुलाकात

समय के उस अनसुलझे अंतराल में 
इक पल जो था निद्रारहित, फिर भी अस्पष्ट  
जीवन की गति को जैसे धीमी करते हुए
किसी अनजाने से यूँ ही कुछ पूछने को 

अचानक मन को विवश पाया

उस राहगीर को शायद मैंने
पहले भी कहीं देखा था
सपनों के पुराने मोहल्ले में
जहां मैं अक्सर जाया करता था,
जहां आज भी
कभी कभी टहल लेता हूँ,
उसके किस्से सुनने को ...
या फिर हवाई जहाज़ की 
खिड़की वाली सीट पे,
सुन्दर
आँखों से बाहर चाँद
तलाशने वाली, जिससे मैंने
फिर से मिलने का वादा किया था!


मुझे संदेह हुआ, की हो ना हो
मैं उससे पहले मिला ज़रूर हूँ

फ्रेंच में जिसे कहते हैं "देजा व्हू"!!
हो सकता है वह मेरा भ्रम था
मायावी जगत का मात्र एक छल था ...
 
(असम्पूर्ण)

Sunday, July 10, 2011

मुक्ति

जड़ता, व्याकुलता के चक्रव्यूह को
आज
मैं कर दूँ अग्नि को समर्पण
स्वयं से अस्पृश्यता बहुत हुई
मैं चाहूँ अब कुछ परिवर्तन !

Saturday, June 4, 2011

छल-कपट

जिंदगी के उलझे हुए पल
क्यों देते मन को छल
धोखा कभी खोयी नैनों का,
कभी पिपासु ह्रदय का
चिर असंतुष्ट आत्मा
क्यों मचाये कोलाहल
अगणित नश्वर पल
क्यों देते मन को छल ?

Friday, June 3, 2011

बारिश की एक सुबह

हल्की बारिश में भीगी सुबह
मंद मंद मुस्काती अलबेली हवा 
रंगीन फूलों से लदी टहनी का
मेरी खिड़की को रह रह कर चूमना 

अच्छा लगता है इन्हें निहारना,
मानो मिल गया हो मुझे 
मेरे अकेलेपन की एक दवा 


Wednesday, April 13, 2011

नई तलाश

भीगी हवा में तैरते
कुछ लम्हें तन्हाई के,
मेरे यादों के संदूक में
उत्साहपूर्वक झांककर,
मुझे आज फिर से
विवश कर दिया
तुम्हें नई तरह से

तलाशने को !
   

Thursday, March 24, 2011

शीत से वसंत

प्रातःकाल, अर्ध-जागृत लोचन
व्यतीत समय, विस्मित मन
प्रतिदिन, मानो एक मिश्रण
कुछ नूतन, कुछ पुरातन 
  
हिमाच्छादित पर्वत शिखर
जैसे दे रहे हों निमंत्रण,
स्वच्छ, नीला गगन
और कुछ घुमंतू श्वेत बादल
टहनियों पे सज्जित नवजात कोंपल
सुगन्धित समीर, कुछ गीत सरल   


गतिमान त्रुटिहीन कालचक्र,
मध्यान्न, फिर अपराह्न का आगमन  

धुप का नरम स्पर्श 
क्षणिक सुख, अस्थिर हर्ष

ज्योत्स्ना-स्नात काया ,
पर अतृप्त ह्रदय, 
अगोचर मन,
ढूंढे प्रश्रय      

पुनः पुष्पित पृथ्वी,
और प्रकृति का पुनर्जन्म
लाता एक विचार सतत
कि जीवन
अनवरत, समय अनंत
कभी शीत, कभी वसंत 

- तापस, २३ मार्च २०११ 

Thursday, March 10, 2011

नई सुबह

एक नई सुबह
सूरज की पीली किरणें 
रौशन सारा जहाँ 

पर मन में अँधेरे

छनी हुई धुप
पलकों पे प्रलेप
यौवन का दिन एक और
विस्मृत होने को तैयार 



पक्षियों का कलरव 
पड़ोस में शोर
पर उसकी अंतर्ध्वनि मूक
या फिर अंतरात्मा वधिर

सुबह नयी,
दिन पुराना
जग भी वैसा
वह भी पहले जैसा !

Wednesday, January 26, 2011

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ

भ्रष्टाचार के अतल कुएँ में गिरा हुआ समाज
और देश पर अकर्मण्य, लोभी, कापुरुषों का राज  
शिक्षा व्यवस्था ऐसी, कि स्वदेश से घृणा, पलायनवाद
और इतिहास को नकारना - इनमें ही मिलता है
आज के तथाकथित "शिक्षितों" को स्वाद
 

सत्य का पक्ष लेना अब बन रहा है अपवाद,
पक्षपाती राजनैतिक विज्ञापन कहलाता है अब संवाद
तथ्य की अब किसे फिक्र, 

जब बिक रहा है सस्ता बौद्धिक आतंकवाद
छद्म युद्ध छिड़ा हुआ है अब भी, 

पर विगतों की किसे याद?

एक और है असहिष्णु धर्मावलम्बियों का सदियों  से 
चला आ रहा भारत पर अत्याचार 
दूसरी ओर साम्यवाद के नाम पर वर्षों से लोग 
कर रहे हैं नरसंहार 

 
प्रतिपल हो रही है हत्या देश के हितों की
पर चक्षुओं को
उदारवाद के चश्मे से ढके हुए हैं 'बुद्धिजीवी'
उठ खड़ा हुआ है देश को तोड़ने के लिए
उद्यत लोगों का एक वर्ग
भूल गए हैं ये भूमि अपनी ही धरोहर है,
जो कभी था पृथ्वी पर स्वर्ग

मन इन दुर्भावनाओं से आज आक्रान्त है
चारों ओर देशवासियों की उपेक्षा से उद्विग्न है
अब लगता है बस कहने को ही देश स्वतंत्र है ,
60 वर्षों में कुछ नहीं बदला, हाय यह कैसा गणतंत्र है!

Friday, April 13, 2007

अक्सर

काँच की इस दीवार के उस पार
मैं अक्सर देखा करता हूँ...
कुछ टुकड़े बादल के...
और कुछ झूमते,
लहराते पत्ते नज़र आते हैं
ठीक तुम्हारी हँसी की तरह...
मेरी उपस्थिति से अनभिज्ञ..
इन्हें क्या पता कि मेरी आँखें
इनकी गति को निहार
तुम्हारी अनुभूति कर लेती हैं...
और मेरे जीवित होने का
एक सजीव एहसास मुझे दे जाती हैं...

Thursday, March 8, 2007

क्यों?

कुछ अधूरे ख्वाब, कुछ अनकही बातें
समय की परिधि से परे कुछ अंतहीन क्षण
क्यों मुझे आज पुकार रहे हैं?

एक निःशब्द निमंत्रण, एक अतुल्य आकर्षण
ह्र्दय में बसी किसी की मधुर छवि
क्यों मुझे आज दुर्बल कर रही है?

कुछ नूतन स्मृति चिह्न, कुछ धूमिल दृश्य
किसी की उपस्थिति का अकारण आभास
क्यों मुझे आज व्याकुल कर रहा है?

मन आज नियंत्रण से बाहर क्यों?
जब मंज़िलें और भी हैं, फिर
मेरे सम्मुख वही एकमात्र लक्ष्य क्यों?

Friday, February 23, 2007

चलते चलो

न होगा अब कभी म्लान मुख
मिट जायेंगे तेरे सारे दुख
पथ को ही बना लो पाथेय तुम
चलते चलो,
सफलता अवश्य लेगी तुम्हारे कदम चूम

राहें सूनी हैं तो क्या
मंज़िल दूर है तो क्या
खुद का साथ तू कभी न छोड़ना
मुश्किलें चाहें लाखों आयें,
कभी उनसे मुँह न मोड़ना

माना ज़िंदगी है बड़ी ग़मगीन अभी
कोई भी दिया रौशन नहीं
पर उम्मीदों को सदा ज़िंदा रखना
अपने अंदर जो आग है
उसे कभी बुझने न देना

Tuesday, January 2, 2007

शुभ नववर्ष

सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें।

Tuesday, December 26, 2006

रणभूमि !

बड़े दिनों बाद, मुझे फिर कुछ हो गया
कल मैं फिर कुद पड़ा रणभूमि में
इस जर्जर शरीर को लेकर
बिन साथी, बिन सारथी,
साथ था तो बस एक व्यथित ह्र्दय ।

करना था तारण
किसी और का नहीं
पीड़ित था मैं स्वयं
सो पुन: किया अस्त्र धारण ।

युद्ध हुआ सदा की तरह घमासान
कई बार लगा कि चले गये प्राण
चला सतत संघर्ष,चले अगणित बाण
थे दाव पर कितने जीवन,मान-सम्मान।

ढल रहा था अब सूर्य,
पश्चिम भी हो रहा था रक्ताक्त
नहीं था मेरे पास इच्छामृत्यु का वरदान
फिर भी अटूट था मेरा अभिमान ।

अन्तत: हुआ अन्त इस युद्ध का
परिणामहीन एक और भीषण द्वंद का
आज मैं फिर खड़ा हूँ यहाँ, प्रतीक्षा है
एक नये ललकार,एक नये सुअवसर का ।


- तापस